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जैन बौद्ध तत्ज्ञान ।
[ ६३ मूळ विषयोंकी तृष्णा है । सम्यक् प्रकार स्वस्वरूपके भीतर रमण करनेसे ही विषयोंकी वासना दूर होती है।
फिर बताया है कि जरा मरणका कारण जन्म है। जन्मका निरोध होगा तब जरा व मरण न होगा। फिर बताया है पांच इन्द्रिय और मनके विषयोंकी तृष्णाकी उत्पत्ति इन छहोंके द्वारा विषयोंकी वेदना है या उनका अनुभव है। केळका कारण इन छहों का और विषयोका संयोग है । इस संयोगका कारण छहों इन्द्रियोंका होना है। इनकी प्राप्ति नामरूप होनेपर होती है । नामरूप अशुद्ध ज्ञान सहित शरीरको कहते हैं । शरीरकी उत्पत्ति पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुसे होती है वही रूप है । नामकी उत्पत्ति वेदना, संज्ञा, चेतना संस्कारसे होती है । विज्ञान ही नामरूपका कारण है। पांच इन्द्रिय और मन सम्बन्धी ज्ञानको विज्ञान कहते हैं, उसका कारण संस्कार है | संस्कार मन, वचन, काय सम्बन्धी तीन हैं । इसका संस्कार कारण
विद्या है। दुःख, दुःखके कारण, दुःख निरोध और दुःख निरोध मार्गके सम्बन्धमें अज्ञान ही अविधा है । अविद्याका कारण आस्रव है अर्थात् चित्तमल है वे तीन हैं-काम भाव (इच्छा), भव या जन्मनेकी इच्छा, अविद्या इस असवका भी कारण अविद्या है | आसव अविद्याका कारण है ।
इस कथनका सार यह है कि अविद्या या अज्ञान ही सर्व संसारके दुःखोंका मूल है। जब यह रागके वशीभूत होकर मज्ञानसे इन्द्रियोंके विषयोंमें प्रवृत्ति करता है तब उनके अनुभवसे संज्ञा होजाती है। उनका संसार पड़ जाता है। संस्कारसे विज्ञान होती
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