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६४] है। अर्थात् एक संस्कारोंका पुन होजाता है। उसीसे नामरूप होता है । नामरूप ही अशुद्ध प्राणी है, सशरीरी है ।
इस सर्व अविद्या व उनके परिवारको दूर करने का मार्ग सम्यग्दृष्टि होकर फिर आष्टांग मार्गको पालना है । मुख्य सम्यक्समाधिका अभ्यास है। सम्यग्दृष्टि वही है जो इस सर्व मविद्या आदिको त्यागने योग्य समझ ले, इन्द्रिय व मनके विषयोंसे विरक्त होजावे । गग, द्वेष, मोहको दूर कर दे। यहां भी मोहसे प्रयोजन अहंकार ममकारसे है। भापको निर्वाणरूप न जानकर कुछ और समझना। आपके सिवाय परको अपना समझना मोह या मिथ्यादृष्टि है। इसीसे पर इष्ट पदार्थोंमें राग व अनिष्टमें द्वेष होता है । अविद्या सम्बन्धी रागद्वेष मोह सम्यकदृष्टिके नहीं होता है। उसके भीतर विद्या का जन्म हो जाता है, सम्र ज्ञान होजाता है । वह निर्वा. णका अत्यन्त श्रद्ध वान होकर सत्य धर्मका लाम लेनेवाला सम्यक् दृष्टि होजाता है। __ जैन सिद्धांतको देखा जायगा तो यही बात विदित होगी कि अज्ञान सम्बन्धी राग व द्वेष तथा मोह सम्यकदृष्टिके नहीं होता है। जैन सिद्धांतमें कर्मके संबन्धको ष्ट करते हुए, इसी बातको सम. झाया है । इस निर्वाण स्वरूप आमाका स्वरूप ही सम्यग्दर्शन या स्वात्म प्रतिति है परन्तु अनादि कालसे उनका प्रकाश पांच प्रकारकी कर्म प्रकृतियोंके आवरणसे या उनके मैलसे नहीं हो रहा है। चार अनंतानुबन्धी (पाषाणकी रेखाके समान) क्रोध, मान, माया, कोम और मिथ्यात्व कर्म। मनंतानुबंधी माया और लोभको भज्ञान
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