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जन बौद्ध तत्वज्ञान।
__ [४३ धर्म स्वाख्या तत्व । इस बुद्ध सूत्रमें कहा है कि धर्म वह है जो इसी शरीरमें अनुभव हो व जो भीतर विदित हो व निर्वाणकी तरफ ले जानेवाला हो तब इससे सिद्ध है कि धर्म कोई वस्तु है जो अनुभवगम्य है, वह शुद्ध आत्माके सिवाय दुसरी वस्तु नहीं होसक्ती है। शुद्धात्मा ही निर्वाण स्वरूप है । शुद्धात्माका अनुभव करना निर्वाण का मार्ग है। शुद्धात्मारूप शाश्वत रहना निर्वाण है। यदि निर्वाणको अभाव माना जावे तो कोई अनुभव योग्य धर्म नहीं रह जाता है जो निर्वाणको लेजा सके। आगे चलके कहा है कि जो मलोंसे मुक्त होजाता है वह अर्थवेद, धर्मवेद, प्रमोद, व एकाग्रताको पाता है। यहां जो अर्थज्ञान, धर्मज्ञानके शब्द हैं वे बताते हैं कि परमार्थ रूप निर्वाणका ज्ञान क इसके मार्ग रूप धर्मका ज्ञान, इस धर्मके अनुभवसे आनन्द होता है। मानन्दसे ही एकाग्र ध्यान होता है।
श्री देवसेनाचार्य तत्वसार जैन ग्रंथमें कहते हैंसयलवियप्पे थके उपजह कोवि सासमो भावो । जो अपणो सहायो मोक्खस्स य कारणं सो हु ॥६१ ॥
भावाथ-सर्व मन वचन कायके विकल्पोंके रुक जानेपर कोई ऐसा शाश्वत् भाव प्रगट होता है जो अपना ही स्वभाव है । वही मोक्षका कारण है। श्री पूज्यपादस्वामी इष्टोपदेशमें कहते हैं
मात्मानुष्ठाननिष्ठस्य व्यवहारमहिःस्थितेः । जायते परमानंदः कश्चिद्योगेन योगिनः ॥ ४७ ॥
भावार्थ-जो मात्माके स्वरूपमें लीन होजाता है ऐसे योगीके योगके बक्से व्यवहारसे दूर रहते हुए कोई भपूर्व मानन्द्र ब्रह्मान
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