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दूसरा भाग ।
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आप्त उसे कहते हैं जो तीन गुण सहित हो । जो सर्वज्ञ, वीतराग तथा हितोपदेशी हो। इन्हींको अईत, सयोग केवली जिन, सकल परमात्मा, जिनेन्द्र आदि कहते हैं ।
आगम प्राचीन वह है जो आप्तका निर्दोष बचन है ।
गुरु वह है जो आरम्भ व परिग्रहका त्यागी हो, पांचों इन्द्रियोंकी आशा से रहित हो, आत्मज्ञान व आत्मध्यानमें लीन हो व तपस्वी हो ।
तीन मूढता - मूर्खता से कुदेवको देव मानना देव मूढता है । मूर्खता से कुगुरुको गुरु मानना पाखण्ड मूढता है । मूर्खतासे लौकिक रूढि या वहमको मानना लोक मृढता है । जैसे नदीमें स्नान से धर्म होगा। |
आठ पद - १ जाति, २ कुल, ३रूप, ४ बल, ५ धन, ६ अधिकार, ७ विद्या, ८ तप इनका घमंड करना ।
आठ अंग-१ निःशंकित ( शंका रहित होना व निर्मल रहना ) । २ निःकांक्षित-भोगोंकी तरफ श्रद्धाका न होना । ३ निर्विचिकित्सित- किसीके साथ घृणाभाव नहीं रखना । ४ अमूढदृष्टि - मूढता की तरफ श्रद्धा नहीं रखना । ५ उपगूहन - धर्मात्मा के दोष प्रगट न करना । ६ स्थितिकरण-अपनेको तथा दूसरोंको धर्म में मजबूत करना । ७ वात्सल्य - धर्मात्माओंसे प्रेम रखना, ८ प्रभावना - धर्मकी उन्नति करना व महिमा फैलाना । जैसे बुद्ध सूत्र में धर्म के साथ स्वाख्यात शब्द है वैसे जैन सूत्रमें है । देखो तत्वार्मसूत्र उमास्वामी अध्याय ९ सूत्र ७ ।
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