________________
जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [३७ विषयोंका लोभ, (२) व्यापाद या द्रोह, (३) क्रोध, (४) उपनाह या पाखंड, (५) भ्रक्ष (अमरख), (६) प्रदोष (निष्ठुरता), (७) ईर्षा, (८) मात्सर्य (परगुण द्वेष), (९) माया, (१०) शठता, (११) स्तम्भ (जड़ता), (१२) सारंभ (हिंसा), (१३) मान, (१४) अतिमान, (१५) मद, (१६) प्रमाद।
जो भिक्षु इन मलोंको मल जानकर त्याग देता है वह बुद्ध में अत्यन्त श्रद्धासे मुक्त होता है । वह जानता है कि भगवान महत् सम्यक्-संबुद्ध (परम ज्ञानी), विद्या और भाचरणसे संपन, सुगत, लोकविद, पुरुषोंको दमन करने (सन्मार्गपर लाने) के लिये भनुपम चाबुक सवार, देव-मनुष्योंके शास्ता ( उपदेशक ) बुद्ध ( ज्ञानी) भगवान हैं।
यह धर्ममें भत्यन्त शृद्धासे मुक्त होता है, वह समझता है कि भगवानका धर्म स्वाख्यात (सुन्दर रीतिसे कहा हुआ) है, साहष्टिक ( इसी शरीरमें फल देनेवाला ), मकालिक (सद्यः फलप्रद), एहिपश्यिक (यहीं दिखाई देनेवाला) औपनयिक (निर्वाणके पास लेजानेवाला ), विज्ञ ( पुरुषोंको) अपने अपने भीतर ही विदित होनेवाला है।
वह सघमें अत्यन्त शृद्धासे मुक्त होता है, वह समझता है भगवानका श्रावक (शिष्य ) संघ सुमार्गारुढ़ है, ऋजुपतिपत्र (सरत मार्गपर आरूढ़) है, न्यायप्रतिपन्न है, सामीचि प्रतिपन्न है ( ठीक मार्गपर मारूद है)
जब भिक्षुके मल त्यक्त, वमित, मोचित, नष्ट व विसर्जित होते हैं तब वह अर्थवेद (मर्थज्ञान), धर्मवेद (धर्मज्ञान) को पाता है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com