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जैन बौद्ध तत्वज्ञान |
[ ९५ फिर वितक व विचार बंद होनेपर प्रीति व सुख सहित भाव रह जावे यह दूसरा ध्यान है । (३) फिर प्रीति सम्बंधी राग चला जावे - वैराग्य बढ जावे - निर्वाण मानके स्मरण सहित सुखका अनुभव हो सो तीसरा ध्यान है । (४) वैराग्य की वृद्धिसे शुद्ध व एकाग्र -स्मरण हो सो चौथा ध्यान है। ये चार ध्यानकी श्रेणियां हैं जिनको गौतमबुद्धने प्राप्त किया । इसी प्रकार जैन सिद्धांत में सरागध्यान व वीतराग ध्यानका वर्णन किया है। जितना जितना राग घटता है ध्यान निर्मल होता जाता है ।
फिर यह बताया है कि इस समाधियुक्त ध्यानसे व आत्मसंयमी होने से गौतमबुद्धको अपने पूर्व भव स्मरणमें आए फिर दूसरे प्राणियोंके जन्म मरण व कर्तव्य स्मरणमें आए कि मिथ्यादृष्टी जीव मन वचन कायके दुराचारसे नर्क गया व सम्यग्दृष्टी जीव मन वचन कायके सुभाचार से स्वर्ग गया यहां मिथ्यादृष्टी शब्द के साथ कर्म शब्द लगा है । जिसके अर्थ जैन सिद्धान्तानुसार मिथ्यात्व कर्म भी हो सक्ते हैं । जैन सिद्धांत में कर्म पुद्गलके स्कंध लोकव्यापी हैं उनको यह जीव जब खींचकर बांधता है तब उनमें कर्मका स्वभाव पडता है । मिध्यात्व भावसे मिथ्यात्व कर्म बंध जाता है । तथा सम्यक्त कर्म भी है जो श्रद्धाको निर्मक नहीं रखता है । इस अपने व दुसरोंके पूर्वकालके स्मरणोंकी शक्तिको अवधि ज्ञान नामका दिव्य ज्ञान जैन सिद्धांतने माना है । फिर बुद्ध कहते हैं कि जब मैंने दुःख व दुःखके कारणको व मासव व आसवके कारणको, दुःख व आस्रव निरोधको तथा दुःख व मासव निरोधके लाधनको मेले प्रकार जान लिया तब मैं सर्व इच्छाओंोंसे, जम्म
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