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जैन बौद्ध समान। इंदियविसयविरामे मणस्स णिल्धरणं इवे जदया। तइया तं भविमप्यं ससलवे गप्पणो तं तु ॥ ६॥ समणे णिच्चलभूये पटे सव्वे वियप्पसंदोहे । थक्को सुदसहायो नवियप्पो णिचको णिचो ॥ ७ ॥
भावार्थ-पांचों इन्द्रियों के विषयोंकी इच्छा न रहनेपर जब मन विध्वंश होजाता है तब अपने ही स्वरूपमें अपना निर्विकल्प (निर्वाण रूप) स्वरूप झलकता है । जब मन निश्चल होजाता है
और सर्व विकल्पों का समूह नष्ट होजाता है तब शुद्ध स्वभावमई निश्चल स्थिर अविनाशी निर्विकल्प तत्व (निर्वाण मार्ग या निर्वाण) झलक जाता है । और भी कहा है
झाणहिमो हु जोई नइ णो सम्वेय णिययमप्पाणं । तो ण लहइ तं सुद्धं मागविहीणो जहा रयणं ॥ ४६॥ देहसुहे पडिबद्धो जेण य सोतेण लहइ ण सुद्धं । तंचं वियाररहिय णिच चिय झायमाणो हु ॥ ४७ ॥
भावार्य-ध्यानी योगी यदि अपने शुद्ध स्वरूपका अनुभव नहीं प्राप्त करे तो वह शुद्ध स्वभावको नहीं पहुंचेगा जैसे-भाग्यहीन रलको नहीं पा सक्ता । जो देहके सुखमें लीन है वह विचार रहित भविनाशी व शुद्ध तत्वका ध्यान करता हुमा भी नहीं पासता है
श्री नागसेन मुनि तत्वानुसासनमें कहते हैंसोऽयं समरसीमावस्तदेकीकरणं स्मृतं । एतदेव समाधिः स्याल्लोकस्यफळप्रदः ॥ १३७ ॥ माध्यस्थ्यं समतोपेक्षा वैराग्यं साम्यमस्पृहः। वैतृष्ण्यं परमः शांतिरित्येकोऽर्थोऽभिधीयते ॥ १३९ ॥
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