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. दूसराभाग । धारणके भावसे व सर्व प्रकारकी भविद्यासे मुक्त होगया । ऐसा मुझको भीतरसे अनुभव हुमा। ब्रह्मचर्य भाव जम गया। ब्रह्म भावमें लय होगया । यह तीसरी विद्या स्वरूपानन्दके लाभकी बताई है।
यहांतक गौतमबुद्धकी उन्नतिकी बात कही है। इस सूत्रमें निर्भय रहकर विहार करनेकी व ध्यानकी महिमा बताई है। यह दिव्यज्ञान न कि पूर्वका स्मरण हो व समाधिमें मानन्द ज्ञान हो उस विज्ञानसे अवश्य भिन्न है जिसका कारण पांच इन्द्रिय व मन द्वारा रूपका ग्रहण है, फिर उसकी वेदना है, फिर संज्ञा है, फिर संस्कार है, फिर विज्ञान है । वह सब अशुद्ध इन्द्रियद्वारा ज्ञान है। इससे यह दिव्यज्ञान अवश्य विलक्षण है। जब यह बात है तब जो इस दिव्यज्ञानका आधार है वही वह आत्मा है जो निर्वाणमें अजात ममर रूपमें रहता है। सद्भावरूप निर्वाण सिवाय शुद्धात्माके स्वभावरूप पदके और क्या होसक्ता है, यही बात जैन सिद्धांतसे मिल जाती है।
जन सिद्धांतके वाक्य-तत्वज्ञानी सम्यग्दृष्टीको सात तरहका भय नहीं करना चाहिये। (१) इस लोकका भय-जगतके लोग नाराज होजायंगे तो मुझे कष्ट देंगे, (२) परलोकका भय-मरकर दुर्गतिमें नाऊंगा तो कष्ट पाऊंगा,(३) वेदनाभय-रोग होजायगा तो क्या करूंगा, (४) अरक्षा भय-कोई मेरा रक्षक नहीं हैं मैं कैसे जीऊँगा (५) अगुप्ति भय-मेरी वस्तुएँ कोई उठा लेगा मैं क्या करूंगा (६) मरण भय-मरण भायगा तो बढ़ा कष्ट होगा (७) अकस्मात् भय-कहीं दीवाल न गिर पडे भूचाल न भावे । मिथ्यादृष्टिकी शरीरसे भासक्ति
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