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दूसरा भाग। सहित नहीं हैं, परनिन्दक नहीं हैं, भीरु नहीं हैं, सत्कार व लाभके भूखे नहीं हैं, स्मृतिवान हैं, निराकुल हैं, प्रज्ञावान हैं उनको वनमें भय नहीं प्राप्त होता, वे निर्भय हो वनमें विचरते हैं । समाधि और प्रज्ञाको सम्पदा बताई है। किसकी सम्पदा-अपने आपकी-निर्वाणको सर्व परसे भिन्न जाननेको ही प्रज्ञा या भेदविज्ञान कहते हैं। फिर भापका निर्वाण स्वरूप पदार्थके साथ एकाग्र होजाना यही समाधि है, यही बात जैन सिद्धांतमें कही है कि प्रज्ञा द्वारा समाधि प्राप्त होती है।
फिर बताया है कि चौदस, अष्टमी, व पूर्णमासीकी रातको गौतमबुद्ध वनमें विशेष निर्भय हो समाधिका अभ्यास करते थे। इन रातोंको प्रसिद्ध कहा है । जैन लोगोंमें चौदस अष्टमीको पर्व मानकर मासमें ४ दिन उपवास करनेका व ध्यानका विशेष अभ्यास करनेका कथन है । कोई कोई श्रावक भी इन रातोंमें वनमें ठहर 'विशेष ध्यान करते हैं। सम्यग्दृष्टी कैसा निर्भय होता है यह बात भलेप्रकार दिखलाई है। यह बात झलकाई है कि निर्भयपना उसे ही कहते हैं जहां अपना मन ऐसा शांत सम व निराकुल हो कि आप जिस स्थितिमें हो वैसा ही रहते हुए निःशंक बना रहे। किसी भयको आते देखकर जरा भी भागनेकी व घबड़ानेकी चेष्टा न करे तो वह भयप्रद पशु आदि भी ऐसे शांत पुरुषको देखकर स्वयं शांत होजाते हैं, आक्रमण नहीं करते हैं। निर्भय होकर समाधिभावका अभ्यास करनेसे चार प्रकारके ध्यानको जागृत किया गया था। (१) जिसमें निर्वाणभावमें प्रीति हो व सुख प्रगटे तथा वितर्क व विचार भी हो, कुछ चिन्तवन भी हो, यह पहला ध्यान है । (२)
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