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दूसरा भाग। संत (शांत), असंखतं (मसंस्कृत या सहज स्वामाविक) सिवं (आनंदरूप; ममुत्तं (अमुर्तीक), सुदुहसं (कठिनतासे अनुभव योग्य), परायनं (श्रेष्ठ मार्ग), सरण (शरणभूत , निपुणं, अनंत, अक्खरं (अक्षय), दुःखक्खस (दुःखोंका नाश', अव्यापज्झ (सत्य), अनालयं (उच्चगृह), विवह (संसारसहित , खेम. केवल, अपवम्गो (अपवर्ग), विरागो, पीतं (उत्तम), अच्चुतं पदं (अविनाशी पद), पारं, योगखेमं मुत्ति (मुक्ति), विशुद्धि, विमुत्ति, (विमुक्ति) असंखत धातु (असंस्कृत धातु), सुद्धि, निव्वुत्ति (निर्वृत्ति) इन विशेषणोंका विशेष्य क्या है। वहीं निर्वाण है। वह क्या है, सो भी अनुभवगम्य है। . यह कोई अभावरूप पदार्थ नहीं होमक्ता । जो अभाव रूप कुछ नहीं मानते हैं उनके लिये मुझे यह प्रगट कर देना है कि अभावके या शून्यके य विशेषण नहीं होसक्ते कि निर्वाण अजात है व अमृत है व अक्षय है व शांत है व अनंत है व पंडितों द्वारा अनुभवगम्य है। कोई भी बुद्धिमान बिलकुल अभाव या शून्यकी ऐसी तारीफ नहीं कर सक्ता है। अजात व अमर ये दो शब्द किसी गुप्त तत्वको बताते हैं जो न कभी जन्मता है न मरता है वह सिवाय शुद्ध भात्मतत्वके और कोई नहीं होसक्ता । शांति व आनंद अपने में लीन होनेसे ही आता है । अभावरूप निर्वाणके लिये कोई उद्यम नहीं कर सकता। इन्द्रियों व मनके द्वारा जाननेयोग्य सर्व नय, वेदना, संज्ञा, संस्कार व विज्ञान ही संसार है, इनसे परे जो कोई है वही निर्वाण है तथा वही शुद्धात्मा है। ऐसा ही जैन सिद्धांत भी
मानता है।
The doctrine of the Budha by George Grimm Laipzic Germany 1936.
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