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जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [११ निरोष है, यह दुःख निरोधकी ओर लेजानेवाला मार्ग (पतिपद) है उसके तीन संयोजन (बन्धन) छूट जाते हैं । (१) सक्काय दिही, (२) विचिकिच्छा, (३) सीलन्चत परामोसो अर्थात् सक्काय दृष्टि (निर्वाणरूपके सिवाय किसी अन्यको आपरूप मानना, विचिकित्सा(आपमें संशय). शीलवत परामर्श ( शील और व्रतोंको ही पालनेसे मैं मुक्त होजाऊंगा यह अभिमान )।"
इसका भाव यही है कि जहांतक निर्वाणको नहीं समझा कि वह ही दुःखका नाशक है वहांतक संसारमे दुःख ही दुःख है । अविद्या
और तृष्णा दुःखके कारण हैं, निर्वाणका प्रेम होते ही संसारकी सर्व तृष्णा मिट जाती है । निर्वाणका उपाय सम्यग्समाधि है। वह तय ही होगी जब निर्वाणके सिवाय किसी आपको मापरूप न माना जावे व निर्वाणमें संशय न हो व बाहरी चारित्र व्रत शील उपवास मादि अहंकार छोड़ा जावे। परमार्थ मार्ग सम्यग्समाधि भाव है। इसी स्थल पर इस सूत्रमें लेख है-मिक्षुमो! यह दर्शनसे प्रहातत्व आसव कहे नाते हैं । यहां दर्शनसे मतलब सम्यग्दर्शनसे है। सम्यग्दर्शनसे मिथ्यादर्शनरूप पासवभाव रुक जाता है, यही बात जैन सिद्धांत कही है
श्री उमास्वामी महाराज तत्वार्थसूत्रमें कहते हैं“मिथ्यादर्शनविरतिवमादकषाययोगाबन्धहेतवः ॥१-८॥ म. " शंकाकांक्षाविचिकित्सान्यदृष्टिाशमा संस्तवाः सम्यादृष्टेरतीचारा:"॥ २३-७१० ॥
भावार्य-कर्मोके भासव तथा बंधके कारणभाव पांच हैं-(१) मिथ्यावर्डन, (२) हिंसा, असत्य, चोरी, कुचीक व परिग्रह पांच भकि
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