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दूसरा भाग ।
या दान, (९) उत्तम आकिंचन (ममत्व त्याग), (१०) उत्तम ब्रह्मचर्य । (४) अनुप्रेक्षा - भावना बारह - नाम ऊपर कहे हैं ।
(५) परीषद जय - बाइस परीषह जीतना - नाम ऊपर कहे हैं। (६) चारित्र - पांच (१) सामायिक या समाधि भाव - शांत भाव, (२) छेदोपस्थापन, समाधिसे गिरकर फिर स्थापन, (३) परिहार विशुद्धि-विशेष हिंसाका त्याग, (४) सूक्ष्म सांवराम - अत्यल्प लोभ शेष, (५) यथाख्पात - नमुनेदार वीतराग भाव । इन संवरके भावों को जो साधु पूर्ण पालता है उसके कर्म पुद्गल का आना बिलकुल बंद हो जाता है । जितना कम पालता है उतना कमका माखव होता है। अभिप्राय यह है कि मुमुक्षुको आस्रवकारक भावोंसे बचकर संवर भावमें वर्तना योग्य है ।
( ३ ) मज्झिमनिकाय - भय भैरव
चौथा ।
सूत्र
इस सूत्र में निर्भय भावकी महिमा बताई है कि जो साधु मन वचन कायसे शुद्ध होते हैं व परम निष्कम्प समाधि भावके अभ्यासी होते हैं वे वनमें रहते हुए किसी बातका भय नहीं प्राप्त करते ।
एक ब्राह्मणसे गौतमबुद्ध वार्तालाप कररहे हैं
ब्राह्मण कहता है - " हे गौतम! कठिन है अरण्यवन खंड और सूनी कुटियां (शय्यासन), दुष्कर है एकाग्र रमण, समाधि न प्राप्त होनेपर अभिरमण न करनेवाले भिक्षुके मनको अकेला या यह वन मानो हर लेता है । "
गौतम - ऐसा ही है ब्रह्मण ! सम्बोधि ( परम ज्ञान ) प्राप्त होनेसे पहले बुद्ध न होने के वक्त, जब मैं बोधिसत्व (ज्ञानका उम्मेद
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