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जन बौद्ध तत्वज्ञान |
[ १९ वार) ही था तो मुझे भी ऐसा होता था कि कठिन है अरण्यवास | तब मेरे मन में ऐसा हुआ - जो कोई अशुद्ध कायिक कर्मसे युक्त श्रमण या ब्राह्मण अरण्यका सेवन करते हैं, अशुद्ध कायिक कर्मके दोषके कारण वह आप श्रमण-ब्राह्मण बुरे मय भैरव ( मय और भीषणता ) का आह्वान करते हैं । ( लेकिन ) मैं तो अशुद्ध कायिक कर्मसे मुक्त हो भरण्य सेवन नहीं कर रहा हूं । मेरे कायिक कर्म परिशुद्ध हैं। जो परिशुद्ध कायिक कर्मवाले भार्य मरण्य सेवन करते हैं उनमें से मैं एक हूँ । ब्राह्मण अपने भीतर इस परिशुद्ध कायिक कर्मके भाव को देखकर, मुझे अरण्यमें विहार करनेका और भी अधिक उत्साह हुआ। इसी तरह जो कोई अशुद्ध वाचिक कर्मवाले, अशुद्ध मानसिक कर्मवाले, अशुद्ध आजीविकावाले श्रमण ब्राह्मण अरण्य सेवन करते हैं वे भयभैरवको बुलाते हैं । मैं अशुद्ध वाचिक व मानसिक कर्म व आजीविका से मुक्त हो अरण्य सेवन नहीं कर रहा हूं, किन्तु शुद्ध वाचिक, मानसिक कर्म, व आजीविकाके भावको अपने भीतर देखकर मुझे अरण्यमें विहार करने का और भी अधिक उत्साह हुआ । हे ब्राह्मण ! तब मेरे मन में ऐसा हुआ । जो कोई श्रमण ब्राह्मण लोभी काम (वासनाओं) में तीव्र रागवाले वनका सेवन करते हैं या हिंसायुक्त-व्यापण चित्तवाले और मनमें दुष्ट संकल्पवाले या स्त्यान (शारीरिक आलस्य) गृद्धि (मानसिक आलस्य) से प्रेरित हो, या उद्धत और अशांत चित्तवाले हो, या लोभी, कांक्षावाले और संशयालु हो, या अपना उत्कर्ष (बड़प्पन चाहने) वाले तथा दूसरेको निन्दनेवाले हो, या जड़ और मीरु प्रकृतिवाले हो, '
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