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दरमाया या नाम, सत्कार प्रशंसाकी चाहना करते हों, या आलसी उद्योगहीन हो, या नष्ट स्पति हो और सूझसे वचित हो, या व्यग्र और विभ्रांत चित्त हो, या पुष्पुज्ञ (अज्ञानी) भेड़गूंगे बसे हो, वनका सेवन करते हैं वे इन दोषोंके कारण अकुशल भय भैरवको बुलाते हैं। मैं इन दोषोंसे युक्त हो वनका सेवन नहीं कर रहा हूं। जो कोई इन दोषोंसे मुक्त न होकर वनका सेवन करते हैं उनमें से मैं एक हूं। इस तरह हे ब्राह्मण ! अपने भीतर निर्लोमताको, मैत्रीयुक्त चिचको, शारीरिक व मानसिक आलस्पके अभावको, उपशांत तित्पनेको, निःशंक भावको, अपना उत्कर्ष व परनिन्दा न चाहनेवाले भावको, निर्भयताको, अल्प इच्छाको, वीर्यपनेको, स्मृति सयुक्तताको, समाधि सम्पदाको, तथा प्रज्ञासम्पदाको देखता हुमा मुझे अरण्यमें विहार करनेका और भी अधिक उत्साह उत्पन्न हुमा ।
___ तब मेरे मनमें ऐसा हुआ जो यह सम्मानित व अमिलक्षित (प्रसिद्ध ) रातियां हैं जैसे पक्षकी चतुदशी, पूर्णर्मासी और अष्टमीकी रातें हैं वैसी रातोंमें जो यह भयप्रद रोमांचकारक स्थान हैं जैसे मारामचैत्य, बनचैत्य, वृश्चैत्य वैसे शयनासनोंमें विहार करनेसे शायद तब भयभैरव देखू । तब मैं वैसे शयनासनोंमें विहार करने लगा। तब ब्राह्मण ! वैसे विहरते समय मेरे पास मृग भाता था या मोर काठ गिरा देता या हवा पत्तोंको फरफराती तो मेरे मनमें जरूर होता कि यह वही भय भैरव मारहा है। तब ब्राह्मण मेरे मनमें होता कि क्यों मैं दूसरेसे भयकी भाकांक्षामें विहररहा हूं ? क्यों न मैं जिस जिस अवस्था रहता। जैसे मेरे पास वह भयभैरव माता है
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