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दसरा मामा रति, (३)प्रमाद, (४) क्रोधादि कषाय,(५) मन वचन कायकी क्रिया। जिसको आत्मतत्वका सच्चा शृद्धान होगया है कि वह निर्वाणरूप है, सर्व सांसारिक प्रपंचोंसे शून्य है, रागादिरहित है, परमशांत है, परमानंदरूप है, अनुभवगम्य है उसीके ही सम्यग्दर्शन गुण प्रगट होता है तब उसके भीतर पांच दोष नहीं रहने चाहिये। (१) शंकातत्वमें संदेह । (२) कांक्षा- किसी भी विषयभोगकी इच्छा नहीं, अविनाशी निर्वाणको ही उपादेय या ग्रहणयोग्य न मानके सांसारिक सुखकी वांछाका होना, (३) विचिकित्सा-ग्लानि-सर्व वस्तुमोको यथार्थ रूपसे समझकर किसीसे द्वेषभाव रखना (४) जो सम्यग्दर्शनसे विरुद्ध मिथ्यादर्शनको रखता है उसकी मनमें प्रशंसा करना (५) उसकी बचनसे स्तुति करना । . उसी सेवानवमुत्रमें है कि भिक्षुओं ! कौनसे संवरद्वारा प्रहातत्व बामव है । भिक्षुओं यहां कोई भिक्षु ठीकसे जानकर चक्षु इंद्रियों संयम करके विहरता है तब चक्षु इंद्रियसे असंयम करके बिहरनेपर जो पीडा व दाह उत्पन्न करनेवाले भासव हो तो वे चक्षु इंद्वियसे संवरमुक्त होनेपर विहार करते नहीं होते। इसी तरह श्रोत्र इंद्रिय, प्राण इंद्रिय, निहा इंद्रिय, पाय ( स्पर्शन ) इंद्रिय, मन इंद्रियमें संयम करके विहरने से पीडा व दाहकारक मानव उत्पन्न नहीं होते।"
. भावार्थ-यहां यह बताया है. कि पांच इंद्रिय तथा मनके विषयोंमें गगभाव करनेसे जो आस्रव भाव होते हैं वे भासव पांच इंद्रिव और मनके रोक लेने पर नहीं होते हैं । . जैन सिद्धांतमें भी इंद्रियोंके व मनके विषयों रमनेसे आसव
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