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ससस मांग। येनात्मनाऽनुभूयेऽहमात्मनैवात्मनात्मनि । सोऽहं न तन सा नासो नैका न द्वौ न वा बहुः ॥ २३ ॥
यदभावे सुषप्तोऽहं यद्भावे व्युस्थितः पुनः। ... तीन्द्रियमनिर्देश्य तस्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥ २४ ॥
भावार्य-इन दो श्लोकोंमें समाधि प्राप्त की दशाको बताया है। समाधि प्राप्तके भीतर कुछ भी विचार नहीं होता है कि में क्या हूं क्या नहीं है। जिस स्वरूपसे मैं अपने ही भीतर अपने ही हारा अपने रूपसे ही अनुभव करता है, वही मैं हूं। न में नपुंसक ई न खी हूं. न पुरुष हूं, न मैं एक ई न दो हूं न बहुत हूं। जिस किसी वस्तुके बहाभये में सोया हुआ था व जिसके लाभ में जाग उठा वह मैं एक इन्द्रियोंसे मतीत हूं, जिसका कोई नाम नहीं है जो मात्र मापसे ही अनुभव करनेयोग्य है। समयसार कलशमें यही बात कही है।
य एव मुक्यानयपक्षपात स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यं । विकल्पजाच्युतशान्तचित्तास्त एक साक्षादमृत पिर्वति ॥२॥
भावाथ-जो कोई सर्व अपेक्षाओंके विचाररूपी पक्षपातको कि में ऐसा हं व ऐसा नहीं इं छोड़कर अपने आपमें गुप्त होकर हमेशा रहते हैं अर्थात् स्वानुभवमें या समाधिये मगन होजाते हैं वे ही सर्व विकल्पोंके जालसे छूटकर शांत चित होते हुए साक्षात् अमृतका पान करते हैं। यही संवरमाव है। न यहां कोई कामना है, न कोई जन्म लेने की इच्छा है, न कोई अज्ञान है, शुद्ध पात्मज्ञान है । मही मोक्षमार्ग है।
इसी सत्र में बुद्ध बचन है “जो यह ठीकसे मनमें करता है कि महाख है, यह दुःख समुदय (दुःखका कारण) है, यह दुःखका
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