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जैन बौद तस्यान। " (१) मेरा मात्मा है, (२) मेरे भीतर मात्मा नहीं है, (३) मात्माको ही भात्मा समझता हूं. (४) भात्माको ही अनात्मा सम. झता हूं, (५) अनात्माको ही मात्मा समझता हूं, (६) जो यह मेरा भास्मा अनुभव कर्ता (वेदक) तथा अनुभव करने योग्य (वेध)
और तहां तहां (मपने) मले बुरे कमौके विपाकको अनुभव करता है वह यह मेरा मात्मा नित्य, ध्रुव, शाश्वत, अपरिवर्तनशील (अविपरिणाम धर्मा) है, गनन्त वर्षों तक वैसा ही रहेगा। भिक्षुओ ! इसे कहते हैं दृष्टिमत (मतवाद), दृष्टिगहन (दृष्टिका घना जंगल), दृष्टिकी मरुभूमि ( इष्टिका तार ), दृष्टिका कांटा ( दृष्टि विशक ), इष्टिका फंदा (दृष्टि संयोजन) । भिक्षुमो ! दृष्टिके फंदेमें फंसा भज्ञ अनाड़ी पुरुष जन्म जरा मरण शोक, रोदन क्रंदन, दुःख दुर्मनस्कता और ईरानियोंसे नहीं छूटता, दुःखसे परिमुक्त नहीं होता।"
मोट-ऊपरकी छः दृष्टियोंका विचार जहांतक रहेगा वहांतक स्वानुभव नहीं होगा । मैं इंवा मैं नहीं है, क्या हूं क्या नहीं हूं, कैसा था कैसा महंगा, इत्यादि सर्व वह विकल्पजाल है जिसके भीतर फंसनेसे रागद्वेष मोह नहीं दुर होता। वीतरागभाव नहीं पैदा होता है। इस कथनको पढ़कर कोई कोई ऐसा मतलब लगाते हैं कि गौतमबुद्ध किसी शुद्धबुद्धपूर्ण एक आत्माको जो निर्वाण स्वरूप है।उसको भी नहीं मानते थे। जो ऐसा मानेगा उसके मतमें निर्वाण अभाव रूप होजायगा। यदि वे आत्माका सर्वथा अभाव मानते तो मेरे भीतर भात्मा नहीं है, इस दूसरी दृष्टिको नहीं कहने । वास्तवमें यहां सर्व विचारोंके अमावकी तरफ संकेत है। । यही बात जैनसिद्धांतमें समाविशतक में इस प्रकार बताई है.
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