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कहते है।
चौंतीस स्थान दर्शन -- द्वारा होनेवाली आत्माके चेतना गुणको परि- (६) मृषानन्द-झूठ में आनन्द मानना व णति को उपयोग कहते हैं। ये २ है।' झूठ के लिए चिन्तवन करना गो मृषानन्द (१) साकारोपयोग-ज्ञानोपयोग को रौद्रध्यान है।
(७) चौर्यानन्द-चोरी में आनन्द मानना (२) निराकारोपयोग-दर्शनोपयोग को बचोरी के लिए चिन्तवन करना चौर्यानन्द कहते है।
रौद्रध्यान है। (१) ज्ञानोपयोग हो. नं. ५. से ६६ (८) परिग्रहानन्द-परिग्रह में आनन्द देखो।
मानना व परिग्रह याने विषय की रक्षा के २) दर्शनोपयोग-को नं. ७१ से ७४ लिए चिन्तवन करना. परिग्रहानन्द रौद्रदेखो।
ध्यान है। २१. ध्यान
___ रुद्र = क्रूर, उसके भाव को रौद्र ध्यान-एक विषय में चिन्लवन के रुकने वाहते हैं। को ध्यान कहते हैं । ये १६ है ।
(९) आज्ञाविचय धर्मध्यान-आगम की १ इष्टवियोगजजा ध्यान-इष्ट पदार्थ आज्ञा की श्रद्धा से तस्व चिन्तवन करना आज्ञाके वियोग होने पर उसके संयोग के लिए विचय धर्मज्ञान है। चितवन करना इष्ट वियोगज आर्तध्यान है । (१०) अपाय विचय-अपने या परके
(२) अनिष्ट संयोगज-अनिष्ट पदार्थ रागादिभाव जो दुःख के मूल है. उनके विनाश को संयोग होने पर उसके वियोग के लिए होने के विषय में चिन्तवन करना अपायविचय चितवन करना, अनिष्ट संयोगज आर्त- धर्मध्यान है। ध्यान है।
(११) वियाक विचय-कर्मों के फल के ३) पीडचितन या वेदनाप्रभव आत- संबंध में संवेगवर्द्धक चिन्तवन करना विपाकध्यान-झारीरिक पीड़ा होने पर उसके संबंध विचय धर्मध्यान है । में चितवन करना पीड़ाचितन धार्तध्यान है।
(१२) संस्थानविचय-लोक के आकार (४) निदानबंध-भोगविषयों की चाह काल आदि के आश्रय जीव के परिभ्रमणादि संबंधी चितवन को निदान या निदानबंध आर्त- विषयक असारता का चिन्तवन करना और ध्यान कही है।
अरहन्त, सिद्ध, मंत्रपद आदि के आश्रय से आर्त यान में दुःखरूप परिणाम रहता तत्त्वचिन्तवन करना संस्थानविय धर्महै । आत्ति = दुःख उसमें होने वाले को आतं ध्यान है। कहते हैं।
(१३) पृथक्त्व वितर्कवीचार शुक्ल {५) हिसानन्द रौद्रध्यान कृत कारित ध्यान-अर्थ, योग व शब्दों को परिवर्तनसहित आदि हिंसा में आनंद मानना ब हिंसा के श्रुत के चिन्तवन को पृथक्त्व वितर्फवीचार लिए चितवन करना, हिंसानन्द रोद्रध्यान है। शुक्लध्यान कहते हैं ।