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[३] देवो हि चाष्टादशदोषयुक्त। स्त्याज्यो दयाभीरहितश्च धर्मः। रत्नस्त्रिभिः सौख्यमयैश्च रिक्त-॥ स्त्याज्योगुरुस्तत्त्वविचारशून्यः ॥३॥ एकान्तप:भुवि दूषितं हि । त्याज्यं च शास्त्रं जिनमार्गबाह्यम् ॥ त्याज्योस्ति विद्वानपि धर्मशून्यः ।
श्रीमान् हि शास्त्री परमार्थशून्यः ॥४॥ उत्तरः-जिसमें भूख प्यास जन्ममरण आदि अठारह दोष विद्यमान हैं ऐसा देव त्याग करने योग्य है, जो धर्म दयासे रहित है वह भी त्याग करने योग्य है और सुखमय रत्नत्रयसे रहित है तथा तत्त्वांके विचार करने में शून्य है ऐसा गुरु भी त्याग करने योग्य है। जो शास्त्र एकांत पक्षसे दूषित हैं और जिनमार्ग से बाह्य हैं वे भी त्याग करने योग्य हैं । जो विद्वान् धर्मशून्य है वह भी त्याग करने योग्य है और जो शास्त्री परमार्थसे रहित है वह भी त्याग करने योग्य है ॥३॥४॥
ग्राह्याश्च कीदृशा देव । शास्त्रधर्मादयस्तथा ॥ प्रश्न-देव शास्त्र गुरु धर्म आदि कैसे ग्रहण करने चाहिए ?