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[१९२] परमार्थ दृष्टिसे देखा जाय तो दोनों प्रकारका संवर अपने आत्मस्वरूप ही है ऐसा समझना चाहिये ॥४०७॥४०८॥
यैरात्मनः शुद्धतरैश्च भावे, भवेदवश्यं खलु निर्जराद्या। भावस्वरूपा खलु निर्जरा सा, नश्यन्ति कर्माणि यदा तपोभः ॥४०९॥ द्रव्यस्वरूपा ननु निर्जरा सा, प्रोक्ता यथावद् व्यवहारदृष्टया। निजात्मरूपा युगनिर्जरापि,
ज्ञेया त्रिलोके परमार्थदृष्टया ॥४१०॥
आत्माके जिन शुद्ध परिणामोंसे कर्मोंकी निर्जरा होती है उन परिणामोंको भावनिर्जरा कहते हैं । तथा तपश्चरणके द्वारा जो कर्म नष्ट होते हैं उन कर्मोके नाश होनेको द्रव्यनिर्जरा कहते हैं । इसपकार इन दोनों निर्जरा
ओंका यथार्थ स्वरूप व्यवहार दृष्टिसे कहा गया है । यदि परमार्थ दृष्टिसे देखा जाय तो तीनों लोकोंमें दोनों प्रकारको निर्जरायें अपने आत्मस्वरूप ही हैं ॥ ४०९ ॥ ४१० ॥
भावैश्च यैरात्मन एव शुद्धैः, प्रणश्यते चाखिलकर्मबन्धः।