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भव्य जीवोंको मांसका भक्षण कभी नहीं करना चाहिये तथा उसका स्पर्श भी कभी नहीं करना चाहिये । ३१५ ॥ ३१६ ॥ क्षमा कृपा दमः शांतिर्लज्जापि मद्यपायिनाम् । कुलजातिपवित्रत्वं स्वात्मबुद्धिविनश्यति १७ मलिनत्वमविवेकोऽनात्मता परिवर्द्धते । ज्ञात्वेति मदिरापानं न कार्यं भवभीरुभिः ॥१८॥
तीसरा व्यसन मद्यपान है । जो जीव मद्यपान करते हैं उनकी क्षमा, कृपा, इंद्रियदमन,शांति, लज्जा, कुल, जाति, पवित्रता और स्वात्मबुद्धि आदि सब गुण नष्ट हो जाते हैं, तथा मालनता, अविवेक और अनात्मता ( आत्मविचारका अभाव ) बढ़ जाती है । यही समझकर संसारसे भयभीत रहनेवाले भव्य जीवोंको यह मद्यपान कभी नहीं करना चाहिये ॥ ४१७ ॥ ४१८ ॥ क्रूरतारवेटलुब्धानां मूर्खताऽन्यायताखिला । निर्दयता पशुत्वं च पापक्रिया प्रवर्द्धते ॥१९॥ विवेको न्यायतास्तिक्ये दयाधर्मो विनश्यति । कार्यं ज्ञात्वेति नाखेटं कदापि स्वात्मतत्परैः २०
चौथा व्यसन शिकार खेलना है। जो मनुष्य शिकार खेलनेके लोलुपी होते हैं उनकी क्रूरता बढ़ जाती है, सब
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