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[१९७] स्वपरज्ञानिनः स्तेयं न कुर्वन्ति कदाचन । ज्ञात्वेति धर्मतत्त्वज्ञैः स्तेयं कार्यं कदापि न २४
छठा व्यसन चोरी करना है । जो पुरुष स्वपरज्ञान रहित हैं वास्तवमें वे ही चोरी करते हैं और इसीलिये पद पद पर उनकी निंदा होती है अथवा ताडना होती है । जो पुरुष अपने आत्माका तथा परपदार्थोंका यथार्थ स्वरूप जानते हैं वे कभी चोरी नहीं करते। यही समझकर धर्म और तत्त्वोंके स्वरूप को जाननेवाले भव्य जीवोंको कभी चोरी नहीं करनी चाहिये ॥४२३-४२४॥ तिरस्कारापमानादिः परस्त्रीसेविनां सदा । सूतकं पातकं पापं कुलजातिच्युतिर्भवेत् ॥२५॥ वर्द्धते वैरं क्लेशोऽपि ज्ञात्वेति श्रावका जनाः । परस्त्रीसेवनं त्यक्त्वा भवेयुर्धर्मतत्पराः ॥२६॥
सातवां व्यसन परस्त्रीसेवन है । जो पुरुष परस्त्री सेवन करते हैं उनका स्थान स्थानपर तिरस्कार वा अपमान होता है। उनके सूतक, पातक, पाप, कुलकी भ्रष्टता, जाति की भ्रष्टता, वैर और क्लेश आदि सदा बढते रहते हैं । यही समझकर श्रावक लोगोंको सदाके लिये परस्त्रीका त्याग कर देना चाहिये और सदाकाल धर्ममें तत्पर रहना चाहिये ॥४२५-४२६ ॥