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वा किसी क्रियाका अनादर करना ये पांच सामायिकके अतिचार कहलाते हैं । धर्मात्मा भव्य पुरुषोंकी इनका स्वरूप समझकर इनका त्याग अवश्य कर देना चाहिये ॥४९३||४९४॥
गृहस्थानामहोरात्रं धर्मध्यानं न सम्भवेत् । विचार्यैवं सदाष्टम्यां चतुर्दश्यां चतुर्विधम् ॥ ९५ त्यक्त्वाहारं कषायादि गृहारंभादिकं तथा । उपवासः प्रकर्तव्यः स्वात्मचिंतनपूर्वकः ॥ ४९६
गृहस्थोंके रात दिन धर्मध्यानका होना असंभव है । यही समझकर उन को अष्टमी और चतुर्दशी के दिन चारों प्रकारके आहारका त्याग कर तथा कषाय और घर संबंधी आरंभ परिग्रह आदिका त्याग कर सदाकाल ( प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को ) उपवास धारण करना चाहिये । और उस दिन अपने शुद्ध आत्माका चिन्तन करते रहना चाहिये । इसको प्रोषधोपवासत्रत कहते हैं ||४९५||४९६॥ विनावलोकनेनैव विना सम्मार्जनेन च ।
शास्त्रोपकरणादीनां ग्रहणं स्थापनं तथा ॥ ४९७ मलमूत्रदिकानां वा यत्र तत्र विसर्जनं ।
सर्वेषां संस्तरादीनां स्थापनं वा प्रमादतः ॥ ९८