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[२२८] नित्यं निवेशनार्थं च स्वरसखादहेतवे। यतते यः स एवास्ति ब्रह्मचारी दयापरः ॥ ५२२
जो पुरुष मन वचन काय से समस्त स्त्रीमात्रका त्याग कर देता है और संसारको बढानेवाले उनके समस्त अतिचारोंका भी त्याग कर देता है तथा जो अपने आत्म जन्य आनंदरसका स्वाद लेने के लिए शुद्ध रत्नत्रय से सुशोभित, आत्मज्ञानरहित मनुष्योंके द्वारा प्राप्त होने अयोग्य, चिदानंदमय और सुख देनेवाले अत्यंत शुद्ध परमात्मामें लीन होनेका सदा प्रयत्न करता है उसको दयालु ब्रह्मचारी कहते हैं । इस प्रकारका ब्रह्मचर्य नामकी सातवी प्रतिमा कहलाती है ॥ २०-२२ ॥ मस्यसिकृषिवाणिज्यं शिल्पसेवादिकं तथा। सर्वारम्भं परित्यज्य पापभीतेर्दयापरः ॥ ९२३ खाध्यायं वा शुभध्यानं करोति स्वात्माचंतनं । आरंभत्यागो विज्ञेयः पालनीयः सुगहिभिः ॥२४
जो दयालु श्रावक पापोंके डरसे असि, मासि, कृषि शिल्प, सेवा, वाणिज्य आदि समस्त आरंभोंका त्याग कर स्वाध्याय करता है, शुभ ध्यान करता है वा अपने आत्मा का चिन्तन करता है उसके इस व्रतको आरंभत्याग कहते हैं । श्रेष्ठ श्रावकोंको इसका सदा पालन करते रहना चाहिये । यह आठवी प्रतिमाका स्वरूप है ॥ ५२३-५२४ः