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[२२९] वस्त्रपार्विना सर्वं परिग्रहं भवप्रदं । मोहादिकं तथा त्यक्त्वा वैरक्लेशादिवर्द्धकम् ॥२५ व्रतोपवासं मौनं च कुर्वन् ध्यानं तपो जपं । खात्मानं चिंतयन् शुद्धं स्वपदे यश्च तिष्ठति ॥ स्वर्मोक्षवाञ्छकः शुद्धः संसारसुखदूरगः। श्रावकः स च विज्ञेयः परिग्रहविवर्जितः ॥ ५२७
जो श्रावक वस्त्र और वर्तनों के विना जन्ममरणरूप 'संसारको बढानेवाले समस्त परिग्रहोंका त्याग कर देता है, तथा वैर क्लेश आदि बढानेवालं मोह वा रागद्वेष आदिका त्याग कर देता है और वन उपवास करता हुआ मौन धारण करता हुआ ध्यान, तप वा जप करता हुआ तथा अपने शुद्ध आत्माका चिंतन करता हुआ अपने शुद्ध आत्मामें लीन रहता है। इसके सिवाय जो स्वर्गमोक्षकी इच्छा करता रहता है, सब तरहसे शुद्ध रहता है, और संसारिक सुखोंसे दूर रहता है उसको परिग्रहविरत श्रावक कहते हैं। यह नौवीं प्रतिमाका स्वरूप है। ॥ ५२५-५२७॥ संसारविषये निंये दुःखे पापप्रदेऽशुभे। विवाहारम्भकार्यादौ व्याधिचिंतादिवर्द्धके ॥ २८