________________
[२३८] हरण करनेवाला है अपने आत्मज्ञान को उत्पन्न करने वाला है और क्रोध मान माया लोभ इन चारों कषायोंको नाश करनेवाला है । ऐसे इस ग्रन्थकी रचना मैने भक्तिपूर्वक की है ॥ १९-२१ ॥
ग्रंथं ह्यमुं वांच्छितदं सदैव, स्मरन्ति गायन्ति पठन्ति भक्त्या । शृण्वन्ति वाञ्छन्ति नमन्ति यान्ति, त एव भव्या भुवि सारसौख्यम् ॥२२॥ जो भव्य पुरुष इच्छानुसार फल देने वाले इस ग्रंथको सदा स्मरण करते हैं, गाते हैं, पढते हैं. भक्तिपूर्वक सुनते हैं, पढने सुनने की इच्छा करते हैं, नमस्कार करते हैं
और इसका संबंध प्राप्त करते हैं वे भव्य जीव इस संसारमें सारभूत सुखको पाकर धन धान्यादिकसे परिपूर्ण साम्राज्य लक्ष्मीको पाकर और धर्मानुकूल कुटुंब वर्गको पाकर अनुक्रमसे शीघ्र ही सदा अजर अमर रहनेवाले अपने आत्मजन्य अनंत सुखको प्राप्त होते हैं ॥२१॥२२॥
साम्राज्यलक्ष्मी च धनादिपूर्णा, धर्मानुकूलं च कुटुंबवर्गम् ।
लब्ध्वैव शीघ्रं ह्यजरामरत्वं, .... क्रमाल्लभन्ते निजसौख्यसारम् ॥२३॥