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[२१९] मनो वचश्च कायं च सम्यग्निरुध्य यत्नतः। प्रियाऽप्रिये पदार्थे च स्वात्मबाह्ये विनाशिनि । त्रिकाले समतां धृत्वा कर्तव्यं स्वात्मचिंतनं । जपोऽनाहतमंत्रस्य ज्ञेयं सामायिकं व्रतम् ॥ ९२
मन वचन कायको प्रयत्न पूर्वक अच्छीतरह रोक कर तथा आत्मासे सर्वथा भिन्न और अवश्य नाश होनेवाले ऐसे पिय वा अप्रिय पदार्थों में समता धारण कर तीनों समय अपने आत्माका चिन्तन करना चाहिये अथवा अनाहत मंत्रका (पंच नमस्कार मंत्रका) जप करना चाहिये इसको सामायिक व्रत कहते हैं ॥४९१।।४९२॥ मनोदुष्प्रणिधानं च संसारक्लेशवर्द्धकं । वचोदुष्प्रणिधानं चाशांतिदुःखप्रदायकम् ॥ ९३ कायदुष्प्रणिधानं च विस्मरणमनादरः। एते पंचातिचाराश्च त्याज्या ज्ञात्वेति धार्मिकैः ॥
सामायिक करते समय अपने मनको किसी बुरे चिन्तनमें लगाना संसारके क्लशोंको बढानेवाला है, वचनको अशुभ कार्यमें लगाना अशांति और दुःख देनेवाला है, इसीप्रकार कायको अशुभक्रिया में लगाना, सामायिक की क्रियाओंको वा पाठको भल जाना और सामायिकका अनादर करना वा सामायिक के समय का