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[२२३] भक्त्या त्रिविधपात्राय दानं देयं चतुर्विधं । अतिथिसंविभागाख्यं व्रतं प्रोक्तं सुखप्रदम् ॥०५
इस संसारमें उत्तम मध्यम जघन्य के भेदसे पात्र तीन प्रकारके हैं। ये सब पात्र अपने आत्मामें लीन रहने वाले हैं, भव्य हैं, घर आरंभ परिग्रह आदिसे रहित हैं। इनको अपना और उन त्यागी व्रतियोंका कल्याण करनेके लिए भक्तिपूर्वक चारों प्रकारका दान देना चाहिए । इस को अतिथिसंविभाग वत कहते हैं। यह अतिथिसंविभाग व्रत अनेक सुखोंको देनेवाला है ॥ ५०४-५ ॥ निंद्य: सचित्तनिक्षेपो वा सचित्तापिधानकं ।
अपरव्यपदेशश्च कालातिक्रम एव च ॥ ५०६ मात्सर्यं दुःखदात्रैतेऽतिचाराः पंचदुःखदाः। सन्तीति परिहर्तव्या ज्ञात्वा स्वर्मोक्षवांछकैः ॥ ७
इस अतिथिसंविभाग व्रतके भी पांच अतिचार हैं 'पहला निंदनीय सचित्त निक्षेप अर्थात् मुनिको देने योग्य आहार को सचित्त पदार्थपर रखदेना है। दूसरा अतिचार सचित्त पदार्थसे ढक देना है, तीसरा अतिचार किसी दुसरेको आहार देनेके लिए कहना अथवा न देने की नियत से किसी अग्ने पदार्थ को दूसरे का बतला देना चौथा अतिचार है। आहार का समय बीत जाने पर दान देनेके