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नहीं करता और न व्यसनांका सेवन करता है तथा शास्त्रोक्तविधि से जिसने यज्ञोपवीत धारण कर रक्खा और मय मांसादिकसे सदा दूर रहता है उसको पाक्षिक श्रावक समझना चाहिए || ४४५ ४९ ॥
मुक्त्वैनं पाक्षिकं शेषाः श्राद्धाः सर्वेऽपि नैष्ठिकाः अथ तेषां क्रमाच्चिह्नं यथावत्कथयाम्यहम् ॥५०॥
पाक्षिकको छोड़कर बाकी सब श्रावक नैष्ठिक कहलाते हैं | अब आगे अनुक्रमसे उन नैष्ठिक श्रावकांके यथार्थ चिन्ह कहते हैं ॥। ४५० ।। क्षयोपशमयोगाद्धि योऽप्रत्याख्यानकर्मणः । निर्दोषान्पालयेन्मूलगुणान् पापभयेन यः ॥ ४५१ पंचविंशतिदोषान्यस्त्यक्त्वा सम्यक्त्वघातकान् । देवशास्त्रगुरुश्रद्धां करोति व्यसनोज्झितः ॥ ५२ ॥ पंचात पूर्त्यर्थं द्वितीयां प्रतिमां तथा । ग्रहीतुं यतते नित्यं त्यक्तुं क्रोधादिकं जवात् ५३ परमानन्दपानार्थं स्वर्मोक्षहेतवे तथा । पूर्वोक्तधर्मयुक्तो यः पूतो दर्शनिको नरः ॥ ५४ ॥
जो मनुष्य अप्रत्याख्यानावरण कर्मके क्षयोपशम होनेसे पापोंके डरसे समस्त मूलगुणोंको अंतिचाररहित