________________
[२११]
भ्याख्यान, कूटलेख क्रिया, न्यासापहार और साकारमंत्रभेद ये पांच सत्यव्रतके अतिचार हैं। अपने आत्माको अत्यंत शांत करने के लिय धर्ममें प्रेम रखनेवाले भव्य जीवोंको इन सब अतिचारोंका त्याग कर देना चाहिये ॥ ४६४-४६५ ॥ स्तेयं प्रमत्तयोगाद्वादत्तादानं ध्रुवं भवेत् । हिंसाकरं यतो लोके प्राणेभ्योऽपि धनं प्रियम् ॥ ज्ञात्वेति धार्मिकैनैव कार्य स्तेयं भवप्रदम् । तदचौर्यव्रतं पूतं पालनीयं प्रयत्नतः ॥ ४६७
प्रमादके निमित्तसे विना दिये हुए दूसरोंके पदार्थोको लेलेना चोरी है । चोरी करना हिंसा ही करना है, क्योंकि इस संसारमें धन प्राणोंसे भी अधिक प्रिय होता है। यही समझकर धार्मिक पुरुषोंको जन्म मरणरूप संसारको बढाने वाली चोरी कभी नहीं करनी चाहिये । इस चोरी न करनेको पवित्र अचौर्यव्रत कहते हैं। यह अचौर्यव्रत प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिये ॥ ४६६-४६७ ॥ त्याज्यश्चौरप्रयोगश्च चौरार्थादानमेव च । राज्यविरुद्धकार्यं च प्रतिरूपक्रिया तथा ॥४६८ नैव हीनाधिकः कार्यों मानोन्मानो भवप्रदः । खान्यशांत्यर्थिभिर्भव्यतादिपूर्णहेतवे ॥ ४६९