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[२०९] उत्तरः-किसी रागस वा द्वेषसे जीवोंके द्रव्यमाण वा भावमाणोंका व्यपरोपण करना वियोग करना हिंसा कहलाती है । यह हिंसा अपने ही आत्माका नाश करनेवाली है। यही समझकर भव्य जीवोंको प्राणियोंके प्राणोंका वियोग कभी नहीं करना चाहिये । इसीको पवित्र अहिंसा व्रत कहते हैं। यह अहिंसावत अनुक्रमसे इच्छानुसार स्वर्गमोक्षके फल देने वाला है ॥ ५९-६० ॥ वधबन्धादिकश्छेदोऽतिभारारोपणं तथा। अन्नपाननिरोधोऽपि न कार्यों धर्मवत्सलैः ॥४६१
धर्ममें प्रेम रखनेवाले भव्य पुरुषोंको वध अर्थात् लकडी थप्पडसे मारना, बंध अर्थात् किसी जीवको रस्सी संकलसे बांधना, छेद अर्थात् नाक कान वा अन्य अंगोंको छेदना, अतिभारारोपण अर्थात् अधिक बोझा लादना और अन्नपान निरोध अर्थात् समयपर खाने पीनको न देना वा भोजन पान रोक देना आदि इस अहिंसाव्रतके अतिचारोंका भी सर्वथा त्याग कर देना चाहिये । भावार्थये अहिंसाणुव्रतके अतिचार हैं इन का भी त्याग कर देना अत्यावश्यक है ॥ ४६०-४६१ ॥ यत्रासदभिधानं हि प्रोच्यते च प्रमादतः । तदेवेहानृतं प्रोक्तं सर्वपापप्रदं जवात् ॥ ४६२