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पालन करता है, सम्यग्दर्शनको घात करनेवाले पच्चीसों दोषों का त्यागकर तथा देवशास्त्र गुरु में अटल श्रद्धान रखता है। इसके सिवाय पांचों अणुव्रतोंको पूर्ण करने के लिए दूसरी प्रतिमाको धारण करने का प्रयत्न करता है तथा क्रोधादिको छोडनेका शीघ्र प्रयत्न करता है और स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करने के लिए आत्मजन्य परमानन्दको पीने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार ऊपर कहे हुए धर्मोकी जो पालन करता है उस पवित्र मनुष्यको पहिली दर्शनप्रतिमाको धारण करनेवाला कहते हैं ५१/५४ भवेयुरेवं ज्ञात्वेति मुनिवत्स्वात्मरक्षकाः । दर्शनप्रतिमायाश्च धारकाः प्रतिपालकाः ॥४५५
यही समझकर भव्यजीवों को यह दर्शन प्रतिमा धारण करनी चाहिए, पालन करनी चाहिये और मुनियोंके समान अपने आत्माकी रक्षा करनेवाले बन जाना चाहिए ॥५५॥ यः पंचाणुत्रतं धीरो गृहीत्वा स्वात्मसाधकम् । रक्षति स्वात्मवन्नित्यं निरतिचारपूर्वकम् ॥ ५६ ॥ गुणवतं तथा धृत्वाणुत्रतवर्द्धकं सदा । चतुः शिक्षावतं धृत्वा यन्मुनित्रतशिक्षकम् ॥५७ भेदविज्ञानशस्त्रं यः करे धृत्वैव तिष्ठति । द्वितीयप्रतिमाधारी श्रावकः स च धार्मिकः ॥५८