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जो गुरु ज्ञान ध्यान और क्षमा धारण करनेमें चतुर हैं, अपने आत्मजन्य आनंद रसका स्वाद लेनेवाले हैं इस संसारमें स्वयं पार होने और अन्य जीवोंको पार करने में समर्थ है, जो आरंभरहित हैं और परिग्रहरहित हैं वे निग्रंथ गुरु ही सदा पूजा वंदना करने योग्य हैं और सेवा करने योग्य हैं। जिस किसी पुरुषको इस प्रकारकी श्रद्धा वा निश्चय है उस धर्मात्मा पुरुषको पाक्षिक श्रावक कहते हैं ॥ ४४११४२॥ नयप्रमाणसिद्धं च सापेक्षकथनाश्रितम् । पदार्थानां यथावद्धि द्योतकं भ्रान्तिनाशकम् ४३ शास्त्रं जिनोक्तमेवं च ग्राह्यं वंद्यं सुखप्रदम् । श्रद्धेति निश्चयो यस्य धर्मज्ञः स च पाक्षिक:४४ ___ जो नय और प्रमाणोंसे सिद्ध पदार्थोंका कथन करते हैं जो अपेक्षापूर्वक तत्त्वोंका कथन करते हैं, पदार्थोके यथार्थ स्वरूपको दिखलाते हैं और भ्रांति वा संदेह को नष्ट करते हैं ऐसे भगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए शास्त्र ही पठन पाठन करने योग्य हैं, वंदना करने योग्य हैं और सुख देनेवाले हैं ऐसी श्रद्धा और निश्चय जिस किसी पुरुषके होता है वही धर्मात्मा पुरुष पाक्षिक श्रावक कहलाता है ॥४४३---४४४॥