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[२०१] अपने स्वचतुष्टयमें लीन रहता है उसे ही इस संसार में आनंदका घर समझना चाहिये ॥ ४३५-४३६ ॥
पापव्यसनयोर्मध्ये को भेदोऽस्ति गुरो वद ?
प्रश्न:-हे गुरो ! अब कृपाकर कहिये कि पाप और व्यसनमें क्या भेद है ?
येनात्माधमकार्येण विनायं नैव तिष्ठति । तदेव व्यसनं प्रोक्तं वैरक्लेशादिवर्द्धकम् ॥४३७ स्वपदायोग्यकार्यं हि तीव्रकर्मोदये सति । कदाचित्क्रियते यद्धि प्रोक्तं पापं तदेव च ४३८
उत्तरः-यह आत्मा जिस नीचकायके विना न रह सके उस वैर क्लेश आदि बढानेवाले कार्यको व्यसन कहते हैं। तथा अपने तीन कर्मोके उदयसे जब यह आत्मा अपने पदस्थके अयोग्य कार्यको कर बैठता है तब उसको पाप कहते हैं ॥ ४३७-४३८ ॥
इति श्रीमुनिराजकुथुसागरविरचिते बोधामृतसारग्रंथे अनुप्रेक्षासप्ततस्वव्यसन