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सम्यग्ज्ञानमयैर्जीवैर्यदि स्वस्त्री न वर्ज्यते । त्यज्यास्तथापि सर्वाश्च वियोगैः परयोषितः ॥ ३३ वैराग्यभावतस्त्यक्त्वा योषिन्मात्रं निजात्मनि । ये रमन्ते व्रतं ब्रह्म पूर्ण तेषां प्रपद्यते ॥ ४३४ ॥
ये समस्त जीव सम्यग्ज्ञानमय हैं। ऐसे इन जीवोंसे यदि अपनी स्त्रीका त्याग नहीं किया जाता है तो भी उनको मन वचन कायसे समस्त परखियोंका त्याग अवश्य कर देना चाहिये । इसको ब्रह्मचर्यव्रत कहते हैं । इसके सिवाय जो पुरुष वैराग्य कर और वीमात्रका त्याग कर अपने आत्मामें लीन हो जाता हैं उनके यह ब्रह्मचर्य - व्रत पूर्ण रीति से प्रगट हो जाता है ॥ ४३३-४३४ ॥ वाह्यान्तरंग संगं यस्त्यक्त्वा क्शादिवर्द्धकम् । स्वाध्यायादौ रतस्तस्य संगत्यागतं भवेत् ॥३५ परचतुष्टयं पश्चात्त्यक्त्वा संतापकारकम् । आनन्दमंदिरं सोऽयं यस्तिष्ठेत्स्वचतुष्टये ॥३६॥
जो मनुष्य लेश और दुःखों को देनेवाले अंतरंग और बाय परिग्रहों का त्याग कर स्वाध्यायादिकमें लीन होता है उसके परिग्रहत्याग नामका व्रत कहलाता है । तदनंतर संताप उत्पन्न करनेवाले परचतुष्टयका त्यागकर जो