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[१९६] प्रकारकी मूर्खता और अन्यायता बढ जाती है तथा निर्दयता पशुपनां और सब पापक्रियाएं बढ जाती हैं। इसीप्रकार उनका विवेक, न्यायपना, आस्तिक्य और दयाधर्म सब नष्ट हो जाता है। यही समझकर अपने आत्मामें तल्लीन रहनेवाले भव्य जीवोंको यह शिकार खलनेका पाप कभी नहीं करना चाहिये ॥४१९-४२० को वेश्यासेविनां बुद्धिः कुलं जातिर्बलं वपुः । मान्यताचारमार्गोऽपि शुभशीलं प्रणश्यति २१ दारियं मूर्खता व्याधिरपात्रता प्रवर्द्धते। न वेश्यासेवनं कार्यं ज्ञात्वेति धर्मवत्सलैः ॥२२
पांचवा व्यसन वश्यासेवन है। इस संसार में जो मनुष्य वेश्यासेवन करते हैं उनकी बुद्धि, कुल, जाति, बल, शरीर, मान्यता, आचारमार्ग, और शुभ शील सब नष्ट हो जाता हैं, तथा दरिद्रता, मूर्खता, व्याधियां और अपात्रता आदि दुर्गुण सब बढ जाते हैं । यही समझकर धर्ममें प्रेम रखनेवाले भव्य जीवोंको वेश्यासेवन कभी नहीं करना चाहिये ॥ ४२१-४२२ ॥ खपरज्ञानहीना हि स्तेयं कुर्वन्ति तत्वतः । अतः पदे पदे तेषां निंदा वा ताड़नं भवेत् ॥२३