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[१९३] स भावमोक्षः सुखशांतिरूपः, यदात्मनो य: सकलप्रदेशात् ॥४११॥ पृथग्भवेद्वाखिलकर्मबन्धः, स द्रव्यमोक्षो व्यवहारदृष्ट्या। निजात्मरूपो द्विविधोऽपि मोक्षः,
सुखप्रदोऽयं परमार्थदृष्ट ॥४१२॥ आत्माके जिन शुद्ध परिणामों से समस्त कर्मोंका बंध नष्ट होजाता है उसको भावमोक्ष कहते हैं। यह भावमोक्ष सुख और शांतिस्वरूप है। तथा जब आत्माके. समस्त प्रदेशोंसे समस्त कर्मबंध अलग हो जाता है उसको द्रव्यमोक्ष कहते हैं। यह सब कथन व्यवहारदृष्टि से समझना चाहिये : परमार्थदृष्टिसे देखा जाय तो अनंत सुख देनेवाला दोनों प्रकारका मोक्ष अपने आत्मस्वरूप ही है ॥ ३११ ॥ ३१२ ॥
व्यसनानां गुरो ! ब्रूहि लक्षणानि च साम्प्रतम् ?
प्रश्न:-हे गुरो ! अब कृपाकर व्यसनोंके लक्षण कहिये ? स्थानं सकलपापानां चिन्तानामपि चापदाम् । व्याधीनामपि दुःखानां मूर्खाणां चिह्नमेव च १३