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और शान्ति को हरण करनेवाला है तथा आत्माके समस्त प्रदेशोंमें जो कर्मोका बंधन होजाता है उसको द्रव्यबंध कहते हैं । यह द्रव्यबंध भी संसार के समस्त दुःखोंको देनेवाला है । इस प्रकार दृष्टिसे दोनों प्रकारके बंधका स्वरूप कहा है | यदि परमार्थ दृष्टि से देखा जाय तो दोनों प्रकारका बंध अपने आत्मासे सर्वथा भिन्न है । ऐसा भव्य जीवों को समझना चाहिये ।। ४०५ ॥ ४०६ ॥ भावैर्हि कर्मागमनस्य यैश्चा-,
मनो हि मार्गश्च निरुध्यते सः । भावस्वरूपः खलु संवरो हि, वा द्रव्यकर्मापि निरुध्यते यतः ॥४०७ ॥ द्रव्यवरूपो भुवि संवरः स प्रोक्तो यथावद् व्यवहारदृष्ट्या । निजात्मरूपो युगसंवरोऽपि, ज्ञातव्य एवं परमार्थदृष्ट्या ॥ ४०८ ॥ आत्मा के जिन परिणामोंसे कर्मोंके आनेका मार्ग रुक जाता है उसको भावसंवर कहते हैं तथा उन परिणाणामोंसे जो द्रव्यकमका रुक जाना है उसको द्रव्य संवर कहते हैं । यह भावसंवर और द्रव्य संवरका स्वरूप व्यवहार दृष्टिसे जैसा है वैसा ही कहा है । यदि