________________
[१९०
- जिन मिथ्यात्व राग आदि कषायरूप शुभ अशुभ परिणामोंसे कर्मोंका आस्रव होता है उसको भावास्रव कहते हैं । उस भावास्रवके निमित्तसे जो कर्म आते हैं उन कर्मोंके आनेको द्रव्यास्रव कहते हैं । यह ढव्यास्रव ज्ञान सुख आदि आत्माके गुणोंको नष्ट करनेवाला है। इस प्रकार आस्रवका जैसा स्वरूप है वही मैने अपनी बुद्धिके अनुसार व्यवहारदृष्टिसे निरूपण किया है । ‘परमार्थदृष्टिसे देखा जाय तो ये दोनों ही प्रकारके आस्रव अपने शुद्ध आत्मासे सर्वथा भिन्न है । इस प्रकार इनका स्वरूप समझना चाहिये ।। ४०३ ।। ४०४ ॥
भावेन येनात्मन एव यश्च, भवत्यवश्यं खलु कर्मबन्धः। स भावबंध: सुखशांतिहर्ता, सर्वात्मदेशे खलु कर्मबन्धः ।।४०५॥ स द्रव्यबंधो भवदुःखदो वा, प्रोक्तो यथावद् व्यवहारदृष्ट्या । निजात्मबाह्ये द्विविधोऽपि बंधो,
ज्ञातव्य एवं परमार्थदृष्ट्या ॥४०६॥ आत्माके जिन परिणामोंसे कर्मोंका बंध अवश्य होता है उन परिणामोंको भावबंध कहते हैं यह भावबंध सुख