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[१५० ज्ञावेति भव्यैः शिवदं मृदुत्वं,
सर्वेषु जीवेषु सदैव कार्यम् ॥३०५॥ इस संसारमें मार्दवधर्मसे बुद्धि यथार्थ हो जाती है, परिणामोंकी कठिनता नष्ट हो जाती है, अपने आत्माको तथा अन्य जीवोंको शुद्धता प्राप्त हो जाती है, म्वात्मानुभूति प्रगट हो जाती है, जिनधर्मकी वृद्धि होती है, धर्मका अनुराग बढता है, परिणामोंकी शुद्धता बढती हैं, शत्रु विरोधका नाश होजाता है, आत्मजन्य स्वराज्यकी प्राप्ति हो जाती है और जन्ममरण का नाश हो जाता है। यही समझकर भव्य जीवोंको समस्त जीवोंके प्रति मोक्ष दनवाला कोमल परिणाम वा मार्दवधर्म सदा काल धारण करते रहना चाहिये ॥ ४ ॥ ५॥
शीलव्रतध्यानजपक्षमाद्याः, पूजा प्रतिष्ठात्मविचारभावः । वृथा भवेदार्जवर्मलोपाद्, ज्ञात्वेति चित्ते च यथाविचारः ॥३०६॥ कायेन कार्यों वचसापि वाच्य-, स्तथा सदा ह्यार्जवधर्म एव । स्वमोक्षदो वाञ्छितवस्तुदाता, भवोद्धि शीघ्रं भवरोगहर्ता ॥३०७॥