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{१५३] करनेके लिये मधुर, मनोज्ञ, शान्ति देनेवाले, भ्रांतिको हरण करनेवाले, क्षमाको प्रगट करनेवाले और प्रेम उत्पन्न करनेवाले तथा सबका हित करनेवाले सत्यवचन ही सदा बोलने चाहिये ॥ ३१० ॥ ३११ ॥
षट्कायजीवस्य सुरक्षकोऽस्ति, चित्ताक्षवेगस्य निरोधकोऽपि । अनात्मबुद्धेः प्रपलायकोऽस्ति, सदात्मबुद्धेः परिवर्द्धकश्च ॥३१२॥ खर्मोक्षदः संयम एव शक्तो, ज्ञात्वेति भव्यैः परिरक्षणीयः । श्रीमान्न शास्त्री न मुनिर्विभाति,
नारी नरः संयमरत्नहनिः ॥३१३॥ . संयमधर्म छहो कायके जीवोंकी रक्षा करनेवाला है, मन और इन्द्रियोंके वेगको रोकनेवाला है, आत्मज्ञानसे बाहर रहनेवाली मिथ्याबुद्धिको नाश करनेवाला है, आत्मज्ञानको बढानेवाला है और स्वर्गमोक्षको देनेवाला है। इन सब कामोंके लिये एक संयम ही समर्थ है। यही समझकर भव्य जीवोंको इस संयमधर्मका पालन सदाकाल करते रहना चाहिये । इस संयमरूपी रत्नके विना न तो कोई मनुष्य शोभायमान होता है, न कोई स्त्री शो