Book Title: Bodhamrutsar
Author(s): Kunthusagar
Publisher: Amthalal Sakalchandji Pethapur

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Page 211
________________ [१८०] इस संसारमें इस जीवका जब मरणसमय आता है तब हाथी, घोडा, मंत्र, तंत्र, विद्या, औषधि, कला, यक्ष, इन्द्र और चक्रवर्ती आदि कोई भी इस जीवकी रक्षा नहीं कर सकता। यदि कोई इस जीवकी रक्षा कर सकता है तो एक पुण्य ही कर सकता है। यही समझकर अपने आत्मजन्य आनंदामृतको सिद्ध करनेवाले भव्य जीवोंको अपनेही आत्माके द्वारा अपने आत्माकी रक्षा करनी चाहिये इसको अशरणानुप्रेक्षा कहते हैं। ३७५ ॥ ३७६ ॥ मोहवशात्स्वसा बंधुर्देवो मृत्वा पशुर्भवेत् । राज्ञी मृत्वा भवेद्दासी पुत्रो मृत्वा भवेत्पिता ७७ भार्या मृत्वा भवेन्माता शत्रुर्भूत्वा भवेत्सखा। मोहं त्यक्त्वैव बुद्ध्वेत्यात्मानं स्वात्मनि चिन्तयेत्। ___इस मोहनीय कर्मके उदयसे मोहित हुआ यह जीव बहिन की पर्याय छोडकर भाई हो जाता है, देव मरकर पशु होजाता है, रानी मरकर दासी हो जाती है, पुत्र मरकर पितः हो जाता है, स्त्री मरकर माता हो जाती है और शत्रु मरकर मित्र हो जाता है । इस संसारके ऐसे परिभ्रमणको समझकर भव्य जीवों को अपने मोहका त्याग कर देना चाहिये और अपने ही आत्मामें अपने

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