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[१८३] घृणित मार्गसे प्रगट हुआ है। क्या ऐसे इस शरीर का स्नेहपूर्वक लालन पालन करना उचित है ? ऐसे शरीरको पाकर तो घोर तपश्चरण करना चाहिये और घोर तपश्चरण कर लोगोंको मोक्षकी सिद्धि कर लेनी चाहिये इसको अशुचित्वानुप्रेक्षा कहते हैं ॥ ३८४ ॥ ३८५ ॥ रागद्वेषैश्च मिथ्यात्वैः सदास्रवः कुकर्मणः । वर्मोक्षरोधको नित्यं भवेच्च भववर्द्धकः ॥३८६॥ त्यक्त्वा द्वेषादिमिथ्यात्वं ज्ञात्वेति तत्त्वतो जवात् स्वात्मबुद्धिः सदा कार्या जिनधर्मे शिवप्रदे ८७
इन संसारी जीवोंके राग द्वेष और मिथ्यात्वके कारण सदा अशुभ कर्मोका आस्रव होता रहता है । यह आस्रव स्वर्ग मोक्षको रोकनेवाला है और सदाके लिये संसारके परिभ्रमणको बढानेवाला है। अतएव भव्य जीवों को बहुत ही शीघ्र आस्रवका यथार्थ स्वरूप समझ कर रागद्वेष और मिथ्यात्वका त्याग कर देना चाहिये तथा अपनी बुद्धि सदाकाल मोक्ष देनेवाले जिनधर्ममें लगाते रहनी चाहिये । इसको आस्रवानुभेक्षा कहते हैं ॥ ३८६ ॥ ३८७ ॥ आस्रवस्य निरोधश्च संवरो मोक्षदायकः । इच्छारोधस्तपोभिश्च क्षमाशांत्यादियोगतः ८८