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परवस्तु परित्यज्य ध्यातव्यं स्वात्मवस्तु हि । सारांश इति बोद्धव्यः स्वरसरसिकैर्जनैः ॥३९८
इन सब बारह अनुप्रेक्षाओंके चिंतन करने का वा कहनेका मुख्य सारांश यही है कि जो भव्य जीव अपने आत्मजन्य आनंद रसके रसिक हैं उन्हें परपदार्थोंका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए और अपने शुद्ध आत्माका ध्यान करते रहना चाहिए ॥ ९८ ॥
सप्ततत्वानि लोकेऽस्मिन् सन्ति कानि जगद्गुरो !
प्रश्न-हे जगद्गुरो ! इस संसारमें सात तत्त्व कौन २ हैं ? चिन्मात्रमूर्तिः परमार्थदृष्टया, स्वभावकर्ता निजसौख्यभोक्ता। सोऽपि जीवो व्यवहारदृष्टया, कर्तास्ति भोक्तापि शुभाशुभस्य ॥३९९॥ संयोगतः पुद्गलकर्मणोऽयं, भवे महादुःखमये निमग्नः । शुद्धस्वभावो हृदि धारणीयः, ज्ञात्वेति भव्यैर्निजराज्यहेतोः ॥ ४००॥