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आत्माका चिन्तन करना चाहिये इसको संसारानुप्रेक्षा कहते हैं || ३७७ ॥ ३७८ ॥
शुभाशुभवशाज्जीवो म्रियते जायते सदा । एको राजेति कोऽपि स्त्रीनरोऽथ पशुर्द्विजः ३७९ कोऽपि कस्य सहायी न स्थितेऽपि बांधवे प्रिये । ज्ञायतेऽतो ध्रुवं लोके क्रियते यादृशं हि यैः ८० तादृशं भुज्यते कर्मान्यथा भवेत्कदापि न । कार्यं ज्ञात्वेति कर्तव्यं तत्स्वरक्षा भवेद्यतः ३८१
इस संसामें यह जीव शुभ और अशुभ कर्मके निमित्तसे अकेला ही मरता है, अकेला ही उत्पन्न होता हैं, अकेलाही राजा होता है, अकेला ही रंक होजाता है, अकेला ही स्त्री होता है, अकेला ही पुरुष होता है, अकेलाही पशु होता है और अकेला ही द्विज होता है वा पक्षी होता है । यद्यपि प्यारे भाई बंधु आदि सब रहते हैं तथापि कोई किसीका सहायी नहीं रहता। इसपरसे यह निश्चय रूप से जाना जाता है कि जो जीव जैसा शुभाशुभ कर्म करते हैं वैसा ही उन्हें अकेला भोगना पडता है । वह कभी बदल नहीं सकता । यही समझकर भव्य जीवोंको ऐसा कार्य करते रहना चाहिये जिससे इस अपने आत्मा की रक्षा सदा होती रहे । इसको फिर कभी भी न