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[१८४ ] भवेत्स्वानन्दपानाद्धि ज्ञात्वा चैवं जिनागमात् । त्यक्त्वा द्वेषादि मिथ्यात्वं स्वात्मानं चिन्तयेत्सदा ॥
आवका निरोध करना संवर है । यह संवर मोक्षको देनेवाला है तथा यह संवर इच्छाका निरोध करनेरूप तपचरण से होता है, क्षमा धारण करने अथवा शांति वा उपशम परिणामों से होता है, और अपने आत्मजन्य आनन्दामृतका पान करनेसे भी होता है। जिनागमसे इन सब बातों को समझकर भव्य जीवोंको रागद्वेष और मिथ्यात्वका त्याग कर देना चाहिये और सदाकाल अपने शुद्ध आत्माका चिन्तन करते रहना चाहिये । इसको संवरानुप्रेक्षा कहते हैं ।। ३८८ ।। ३८९ ।। गुप्त्या समित्या तपसा धर्मचारित्रचिन्तनैः । रागद्वेपयुतो जीवो विशेषेण विशुध्यति ॥ ३९० अग्निना शुध्यति स्वर्णं तथा ध्यानेन योगिनः । ज्ञात्वेति च्छेदनीयं हि कर्मजालं जनैर्जवात् ॥९१
यह रागद्वेषसहित जीव भी गुप्ति, समिति, तपश्चरण, धर्म, चारित्र और ध्यान से विशेष शुद्ध हो जाता है । जिस प्रकार अग्निसे सुवर्ण शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार योगी लोग भी ध्यान से ही शुद्ध होते हैं । यही समझकर भव्यजीवों को बहुत शीघ्र अपना कर्मरूपी जाल छिन्न