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{१५६ बाह्यादिभेदाद्विविधश्च संगो, ह्यनर्थकारी सुखशान्तिहारी। स्वर्गापवर्गादिनिरोधकारी, ह्याशाग्रहाणां परिवर्द्धकोऽस्ति ॥३१८॥ समस्तसंतापनिधानमेव, ह्येवं यथावत्कथितोऽल्पबुध्द्या । ज्ञात्वेति शीघ्रं च स्वराज्यहेतो-, स्त्याज्यो हि भव्यैर्द्विविधोऽपि संगः॥१९ यह परिग्रह बाद्य और अभ्यंतरके भेदसे दो प्रकारका है । यह दोनों प्रकारका परिग्रह अनेक अनौँको उत्पन्न करनेवाला है, सुख और शांतिको हरण करनेवाला है, स्वर्ग मोक्ष आदि कल्याणोंको रोकनेवाला है, आशारूपी ग्रहोंको बढानेवाला है और समस्त संतापोंका खजाना है । इसप्रकार श्रीकुंथुसागर मुनिने अपनी अल्पबुद्धिके अनुसार यथार्थरीतिसे निरूपण किया है। यही समझकर भव्यजीवोंको अपना आत्मजन्य राज्य प्राप्त करनेके लिये शीघ्र ही दोनों प्रकारके परिग्रहोंका त्याग कर देना चाहिये ॥ ३१८ ।। ३१९ ॥
बंधस्य मूलं हि कलत्रमेव, मोक्षस्य मूलं त्यजनं च तस्य ।