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प्रथमेंऽजनचौरोऽङ्गेऽनन्तमती स्पृहातिगा । द्वितीयेंगे तृतीयेऽपि ह्युद्दायनो नृपः प्रभुः ३४० चतुथें रेवती राज्ञी जिनभक्तोऽथ पंचमे । षष्ठे श्रेष्ठोत्तमो योगी वारिषेणो नृपात्मजः ४१ विष्णुनामा मुनिर्धीरः सप्तमे भव्यवत्सलः । वज्रनामा मुनिर्वीरो ह्यष्टमे क्रमतोऽभवत् ४२ पूर्वोक्तानां च भव्यानामष्टांगधारिणां सताम् । सदानुकरणं कार्यं भव्यैः स्वर्मोक्षहेतवे ॥३४३
इन आठों अंगों से पहले निःशंकित अंगमें अंजन चोर प्रसिद्ध हुआ है, दूसरे निःकांक्षित अंगमें इच्छाओंको न रखनेवाली अनंतमती प्रसिद्ध हुई है। तीसरे निर्विचिकित्सा अंग में उद्दायन राजा प्रसिद्ध हुआ है । चौथ अमृढदृष्टि अंगमें रेवती रानी प्रसिद्ध हुई है। पांचवें उपगूहन अंगमें राजा उद्दायन प्रसिद्ध हुआ है। छठे स्थिति करण अंगमें राजा श्रेणिक के पुत्र सर्वोत्तम मुनिराज बारिषेण प्रसिद्ध हुए हैं। सातवें वात्सल्य अंग में प्रेम रखने वाले धीरवीर मुनि विष्णुकुमार प्रसिद्ध हुए हैं तथा आठवें प्रभावना अंगमें धीर वीर मुनिराज वज्रकुमार प्रसिद्ध हुए हैं । इस प्रकार आठ अंगोंमें अनुक्रम से प्रसिद्ध हुए हैं । भव्य जीवोंको स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करनेके लिये