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। [१७२] कुमार्गनेतुः कुगुरोश्च तस्य, शिष्यस्य मिथ्यात्वविबर्द्धकस्य । समस्तसंतापनिधानमूर्तेः, संगो न कायों विनयोपचारः ॥३५४॥ न दुष्टबुद्धिः सुगुरौ सुशिष्ये, कार्या सुभव्यैरतिपापदा सा । गुरुर्विसंगी सुखशांतिदाता, भवेद्दयाो भुवि बोधनार्थम् ॥३५५॥
कुगुरु और उनके शिष्य दोनों ही मिथ्यात्वको बढाने वाले हैं, कुमार्गमें ले जानेवाले हैं और समस्त संताप के खजाने की मूर्ति हैं अतएव ऐसे कुगुरु और उनके शिष्यों का समागम कभी नहीं करना चाहिए और न कोई उन का उपचार विनय करना चाहिए । इसी प्रकार श्रेष्ठ भव्य जीवोंको सुगुरु और सुशिष्याम पाप उत्पन्न करनेवाली द्वेषबुद्धि भी कभी नहीं करनी चाहिए । भव्य जीवोंको अपना आत्मज्ञान प्रगट करने के लिए दयालु सुख शांति को देनेवाला और समस्त परिग्रहोंसे रहित ऐसा निग्रंथ गुरु ही बनाना चाहिए ॥५४.५५ ॥ भावार्थ- कुदेव, कुशाख और कुगुरु तथा इन तीनों के भक्तोंकी सेवा भाक्त