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प्रश्न:--हे गुरो ! अब यह बतलाइये कि छह आयतनोंका लक्षण क्या है ?
चतुर्गतीनां खलु कारणस्य, भक्त्या कुदेवस्य तथैव तस्य । भक्तस्य सत्यार्थविदा नरेण, स्तुतिः सुपूजा न कदापि कार्या ॥५०॥ देवे सुभक्ते खलु तस्य कार्या, न द्वेषबुद्धिर्भवदायिकापि। ज्ञात्वेति वंद्यो भुवि बोधनार्थं, निर्दोषदेवः खलु तस्य भक्तः ॥३५१॥
उत्तरः-कुदेव और उनके भक्त चारों गतियोंमें परिभ्रमण करानेवाले हैं। अतएव पदार्थोंके यथार्थ स्वरूपको जाननेवाले भव्य जीवोंको इन कदेव और उनके भक्तोंकी भक्तिपूर्वक पूजा स्तुति कभी नहीं करनी चाहिये । इसी प्रकार देव और उनके श्रेष्ठ भक्तोंमें ससारको बढानेवाली द्वेषबुद्धि भी कभी नहीं करनी चाहिये । यही समझकर भव्य जीवोंको अपना आत्मज्ञान उत्पन्न करनेके लिये निर्दोष देव और उनके भक्तोंकी ही वंदना करनी चाहिये ॥५०॥५१॥